Thursday, January 1, 2009

'कतिल'

तुम्हारी अंजुमन से उठ कर दीवाने कहाँ जाते
जो वाबस्ता हुए तुमसे वो अफ़साने कहाँ जाते।
निकलकर देशे - काबा से अगर मिलता न मैखाना
तो ठुकराए हुए इंसा खुदा जाने कहाँ जाते।
तुम्हारी बेरुखी ने लाज रख ली बादाखाने की
तुम आँखों से पिला देते तो पैमाने कहाँ जाते।
चलो अच्छा हुआ काम आ गई दीवानगी अपनी
वरना हम झमाने-भर को समझाने कहाँ जाते।
'कतील' अपना मुकद्दर गम से बेगाना अगर होता
तो फ़िर अपने पराये हम से पहचाने कहाँ जाते।

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